अब संभव है इंसानों की क्लोनिंग:
विज्ञान ने पार की अंतिम बाधा, लेकिन नैतिक
सवालों की उठी लहर
विशेष रिपोर्ट
विज्ञान ने एक बार फिर अपनी सीमाएं तोड़ दी हैं। अब इंसानों की क्लोनिंग न केवल संभव है, बल्कि वैज्ञानिक रूप से सिद्ध भी हो चुकी है। अमेरिकी वैज्ञानिकों ने सफलतापूर्वक मानव भ्रूण का क्लोन तैयार कर लिया है, जो स्टेम सेल उत्पादन में सक्षम है।
यह ऐतिहासिक उपलब्धि वर्ष 2013 में हासिल हुई थी, जब शोधकर्ताओं ने ऐसे मानव भ्रूण बनाए जो एंब्रियोनिक स्टेम सेल्स (embryonic stem cells) पैदा करने में सक्षम थे। इस उपलब्धि ने डायबिटीज जैसी बीमारियों के लिए व्यक्तिगत इलाज की संभावनाएं खोल दीं। हालाँकि, यह भ्रूण पूर्ण रूप से विकसित इंसान से कहीं कम जटिल था।
बंदरों की क्लोनिंग: इंसान की दिशा में बड़ा कदम
साल 2018 में चीन के वैज्ञानिकों ने दो मकाक बंदरों - झोंग झोंग और हुआ हुआ - का सफलतापूर्वक क्लोन किया। यह पहली बार था जब किसी प्राइमेट (उन्नत श्रेणी के स्तनधारी जीव) की क्लोनिंग सफल रही।
इस प्रक्रिया में वैज्ञानिकों ने Somatic Cell Nuclear Transfer (SCNT) तकनीक का इस्तेमाल किया — वही तकनीक जिससे 1996 में डॉली भेड़ का क्लोन तैयार किया गया था।
इस तकनीक की सफलता यह साबित करती है कि क्लोनिंग अब सिर्फ कल्पना नहीं, बल्कि एक जटिल लेकिन संभव प्रयोग बन चुका है — और अब यह इंसानों की ओर तेजी से बढ़ रहा है।
नैतिक संकट के संकेत: पहचान, अधिकार और गरिमा पर सवाल
हालांकि वैज्ञानिक उपलब्धियां सराहनीय हैं, लेकिन जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी के जैव-नैतिक विशेषज्ञ जेफ़्री कान जैसे विशेषज्ञ इस तकनीक को लेकर गंभीर चेतावनी दे रहे हैं।
उनका मानना है कि जैसे-जैसे हम इंसान को क्लोन करने के करीब पहुंच रहे हैं, हमें कुछ गंभीर नैतिक और सामाजिक सवालों का सामना करना पड़ेगा:
-
क्या क्लोन व्यक्ति की स्वतंत्र पहचान होगी?
-
क्या उन्हें वही अधिकार और गरिमा मिलेगी?
-
सहमति (consent) का क्या मतलब होगा जब किसी का अस्तित्व ही प्रयोगशाला में तय होगा?
अमेरिका में कानूनी स्थिति: एक ग्रे जोन
संयुक्त राज्य अमेरिका में फेडरल स्तर पर इंसानी क्लोनिंग पर कोई पूर्ण प्रतिबंध नहीं है। FDA (Food and Drug Administration) की अधिकार सीमा भी सीमित है, जिससे यह मुद्दा नियमों के ग्रे एरिया में फंस गया है।
जहां कुछ वैज्ञानिक इस पर रोक लगाने या अंतरराष्ट्रीय नियम बनाने की मांग कर रहे हैं — ठीक वैसे ही जैसे 1975 में एसीलोमार सम्मेलन में DNA रिसर्च के लिए गाइडलाइन बनी थीं — वहीं कुछ का मानना है कि आज के वैश्विक वैज्ञानिक नेटवर्क में ऐसी रोक लगाना मुश्किल है।
आगे क्या?
अब जब इंसान की क्लोनिंग वैज्ञानिक रूप से संभव हो चुकी है, सवाल यह नहीं रह गया कि "क्या यह हो सकता है?" बल्कि अब सवाल है, "क्या हमें यह करना चाहिए?"
क्या समाज नैतिक रूप से तैयार है? क्या सरकारें इसके लिए ठोस कानून बना सकेंगी? और क्या विज्ञान केवल कर सकता है इसलिए करेगा, या उसमें रुकने की समझ भी होगी?
यह स्पष्ट है कि यदि अब भी हम इस दिशा में संवाद, नियम और नैतिक मूल्यों को प्राथमिकता नहीं देंगे, तो यह तकनीक बिना आमंत्रण के हमारे दरवाज़े पर दस्तक दे देगी — और तब शायद दिशा तय करने का विकल्प हमारे पास न बचे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें