सोमवार, 14 अप्रैल 2025

डॉ. आंबेडकर जयंती:

 

संपादकीय

डॉ. आंबेडकर जयंती: 

समता, न्याय और जागरूकता का प्रतीक

14 अप्रैल केवल एक तिथि नहीं है, यह भारतीय समाज की आत्मा को झकझोर देने वाला वह दिन है जब हमने एक ऐसे विचारक को जन्म लेते देखा, जिसने जातीय जकड़नों को तोड़कर हमें एक नया सामाजिक दृष्टिकोण दिया। डॉ. भीमराव आंबेडकर की जयंती केवल एक श्रद्धांजलि का अवसर नहीं, बल्कि आत्ममंथन का क्षण है—हम कहां थे, कहां हैं और कहां जाना है?

डॉ. आंबेडकर का जीवन एक सतत संघर्ष की गाथा है। वह अस्पृश्यता के शिकार हुए, मगर ज्ञान की रोशनी से न केवल अपने लिए रास्ता बनाया, बल्कि करोड़ों दलितों और वंचितों के लिए भी सामाजिक न्याय की लौ जलायी। उन्होंने हमें यह सिखाया कि शिक्षा केवल आत्मोन्नति का माध्यम नहीं, बल्कि सामाजिक क्रांति का शस्त्र भी हो सकता है।

भारतीय संविधान के शिल्पकार के रूप में आंबेडकर ने जो कार्य किया, वह किसी एक वर्ग या समुदाय के लिए नहीं, बल्कि पूरे भारतवर्ष के लिए था। उनके संविधान में जो मूलभूत अधिकार निहित हैं—स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय—वे किसी भी लोकतांत्रिक समाज की नींव होते हैं। उन्होंने भारत को केवल एक राजनीतिक राष्ट्र नहीं, बल्कि एक सामाजिक-न्यायिक परियोजना के रूप में कल्पना की थी, जो हर व्यक्ति को गरिमा के साथ जीने का अधिकार देता है।

लेकिन यह प्रश्न आज भी विकराल है कि क्या हम आंबेडकर के सपनों का भारत बना पाए हैं? क्या वास्तव में दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और महिलाओं को वह सामाजिक प्रतिष्ठा और आर्थिक अवसर मिल पाए हैं, जिनकी बात संविधान करता है? उत्तर स्पष्ट नहीं है। राजनीतिक प्रतिनिधित्व भले बढ़ा हो, लेकिन सामाजिक मानसिकता में बदलाव की गति धीमी है। आरक्षण पर बहस आज भी तर्क की जगह पूर्वग्रहों में फंसी है।

आज जब आंबेडकर जयंती पर देशभर में शोभायात्राएं, भाषण, पुष्पांजलि और सभाएं आयोजित होती हैं, तब एक और जरूरी बात याद रखने की है—आंबेडकर केवल दलितों के नेता नहीं थे। वे एक आधुनिक भारत के निर्माता थे। उन्होंने पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों की सीमाओं को समझते हुए एक ऐसी वैकल्पिक सोच दी, जिसमें सामाजिक समरसता के साथ आर्थिक न्याय का समन्वय हो। उनका श्रम कानूनों में योगदान, महिलाओं के अधिकारों के प्रति समर्थन और धर्मनिरपेक्षता के प्रति आग्रह आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना स्वतंत्रता के समय था।

डॉ. आंबेडकर ने बार-बार चेताया कि केवल राजनीतिक स्वतंत्रता पर्याप्त नहीं है, जब तक सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र सुनिश्चित नहीं किया जाता। उनकी यह चेतावनी आज के समय में और भी गंभीर हो जाती है, जब असमानता की खाई और गहरी हो रही है, और सामाजिक ध्रुवीकरण बढ़ रहा है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आंबेडकर का दर्शन केवल एक वर्ग को सशक्त करने की मांग नहीं करता, बल्कि पूरे समाज को मानवता की उच्चतम अवस्था तक ले जाने की बात करता है। उनकी दृष्टि में ‘प्रबुद्ध भारत’ वह होगा, जहाँ कोई व्यक्ति अपनी जाति, धर्म, लिंग या वर्ग के कारण अपमानित न हो।

आज आंबेडकर जयंती को केवल एक रस्मी आयोजन न बनाकर, उनके विचारों को जीवन में उतारने का संकल्प लेने का दिन बनाना चाहिए। स्कूलों और विश्वविद्यालयों में उनके विचारों को गंभीरता से पढ़ाया जाए, और शासन-प्रशासन में उनकी सामाजिक दृष्टि को नीति-निर्माण का आधार बनाया जाए।

भारत यदि वास्तव में एक न्यायपूर्ण और समावेशी समाज बनना चाहता है, तो आंबेडकर के विचारों को स्मरण नहीं, प्रयोग का विषय बनाना होगा। तभी उनकी जयंती, श्रद्धांजलि से आगे बढ़कर समाज की नई रचना का माध्यम बन सकेगी।

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